नीलम कुलश्रेष्ठ
एपिसोड -1
जैसे चाँद, सूरज, ज़मीन, और समुद्र एक बड़ा सच है ऐसे ही स्त्री प्रताड़ना भी एक बड़ा सच है., कुछ अपवादों को छोड़कर. सन ११९९ में मैं डभोई तलुका की महिला सामाख्या की नारी अदालत से चमत्कृत होकर लौटी थी. ऐसी अदालत देखना अपने आप में एक अजूबा था. इस अदालत में वादी प्रतिवादी अपने पक्ष रख रहे थे व जिरह कर रहे थे उनके साथ में आये हुए लोग. कोर्ट की भागदौड़ से बचने के लिए सुलह कर लेते थे, इस तरह उन्हें बिना पैसे खर्च किये न्याय मिला जाता था. मेरा लिखा वह सर्वे हिंदी में लिखा पहला आलेख था नारी अदालत के बारे में इतनी हिंदी पत्रिकाएं होते हुए भी जिसे कोई पत्रिका प्रकाशित करने को तैयार नहीं हुई थी. उसे मैंने सन २००२ में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक "जीवन की तनी डोर; ये स्त्रियाँ "में ले लिया था.
सन१८८६ से राष्ट्रीय नीति में पहली बार सोचा गया की शिक्षा ही ऐसा माध्यम है जोकि स्त्री के स्तर को पूरी तरह बदल सकता है. इस काम के लिए दो विशेषज्ञों को रक्खा गया. उन्होंने स्त्रियों के लिए काम करने वाली संस्थाओं, नारीवादी व्यक्तियों और शिक्षाविदों को बुलाकर नारी की मूलभूत समस्यायों का अध्ययन किया.
सर्वप्रथम गुजरात, कर्नाटक व उत्तर प्रदेश को महिला सामाख्या पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुना. सन १९८८ में इसकी रुपरेखा बनायीं. इस योजना का आरम्भ मानव संसाधन मंत्रालय के शिक्षा विभाग द्वारा नीदरलेंड के आर्थिक सहयोग से पांच वर्ष के लिए सन १९८९ में किया गया, . इस योजना की सफ़लता से इस योजना को आठ प्रदेशों में लागु किया गया. अब `केबिनेट कमेटी ऑन इक्नोमिक्स अफेयर `की महिला सामाख्या के विस्तार की दो दशमलव एक करोड़ की योजना सन २००७ से सन २००१२ तक थी. अब ये ग्यारह जिलों में काम कर रही है. ये हैं उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बिहार आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छतीस गढ़, आसाम, झारखण्ड, केरल, गुजरात, और उत्तराखंड, ये योजना भारत का मानव संसाधन मंत्रालय रोयेल्स नीदरलेड ब्रिटेन के इंटरिम अफ़ेयर्स विभाग चला रहा है. इस योजना के विस्तार का श्रेय मंत्री कपिल सिब्बल को जाता है.
महिला संख्या योजना के निम्नलिखित उदेश्य रहे ;
स्त्रियाँ अपने को पुर्णतः पहचानकर आत्मविश्वास प्राप्त करें जिससे उनका जीवन देश व इसकी अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी बन सके.
. इस तरह का वातावरण बनाना जहाँ स्त्रियाँ स्वयं ज्ञान व सूचना प्राप्त कर सकें जोकि देश के लिए उपयोगी हो., इसके उत्थान के लिए वे अपना योगदान दे सकें.
. एक केन्द्रीय प्रबंधन व्यवस्था की स्थापना जोकि जिले व गावों की स्त्रियों के उत्थान के लिए निर्णय ले सकें. वे ऐसा वातावरण बनायें जिससे महिलाएं अपनी सामाजिक व आर्थिक उन्नति के लिए स्वयं आगे आयें.
. स्त्रियाँ अपने गाँव की प्राथमिक शाला की व्यवस्था पर नज़र रखें. बच्चों को पढने के लिए प्रोत्साहित करें.
. वहां ऐसा वातावरण तैयार हो जिससे स्त्री पुरुष समान शिक्षा का लक्ष्य पूरा हो.
महिला सामाख्या किस तरह काम करती है इस बात को समझने के लिए तब ममता बक्षी, को ऑर्डिनेटर ने बताया था, "गुजरात में हम छ; जिलों के तीन सौ बीस गावों में काम कर रहे हैं. गाँव की हर महिला को आमंत्रित करते हैं कि वे महिला सामाख्या `संघ `की सदस्यता लें. इनमें जो बुद्धिमती होती हैं उन्हें मानदेय राशि पर `सहयोगिनी `नियुक्त करतें हैं, , गुजरात के गांवों में तेतींस सहयोगिनी काम कर रहीं है, हम लोग काम करते समय ध्यान रखते हैं कि उसमें पारंपरिक ज्ञान का भी समावेश हो. जिससे वे अपनी जड़ों से कट न जाएँ. "
"ग्रामीण परिवेश कि कुछ कुप्रथाएं होतीं है. उन्हें बंद करने में आप को कुछ सफ़लता मिली है. ?"
"गावों में स्त्री को बच्चा नहीं होता तो उसे डाकिन करार कर तरह तरह से सताया जाता है. जिनमें महिला सामाख्या काम कर रही है वहां इसकी हिम्मत कोई नहीं करता. किसी की म्रत्यु के बाद स्त्रियाँ छाती कूट कूट कर विलाप करतीं थीं, वह प्रथा भी बंद करवाई है. "
"नारी अदालत का आरम्भ कैसे हुआ ?"
"हमने व सहयोगिनियों ने गाँव में घूम घूम कर देखा कि औरतों को उनका हक़ नहीं दिया जाता है. अनेक स्त्रियों के पास पैसा नहीं होता कि वे कोर्ट में मुक़दमा दायर कर सकें यदि उस स्त्री के घर वाले मुक़दमा दायर करतें हैं तो वे कोर्ट की प्रक्रिया के कारण खिंचते चले जातें हैं इसलिए हमने वैकल्पिक न्याय व्यवस्था आरम्भ की जिसका नाम रखा "कायदा समिति `, बाद में इसका नाम रखा गया `नारी अदालत `.
नारी अदालत के सुखद परिणामों को देखकर महिला सामाख्या के पदाधिकारी स्वयं हतप्रभ रह गए. लगभग सन १९९७ के मध्य में आरम्भ हुई नारी अदालत साठ गांवों के लिए चार तालुका में नारी अदालत काम करती थी.
महिला सामाख्या से जुड़ी महिलायों को इस अदालत का विचार ऐसे ही नहीं आया था , इस विचार का जन्म जुड़ा हुआ है गुजरात के रंगपुर गाँव के आनंद निकेतन आश्रम में सन १९४८ में जन्म लेने वाली लोकअदालत के साथ. इस आदिवासी इलाके में समाज सेवी श्री हरि वल्लभ पारिख ने अपने इस आश्रम में एक पेड़ के नीचे लोक अदालत की नींव डाली थी. ये लोकअदालत यहाँ के गाँवों के लिए एक बड़ी राहत बनती गयी. यहाँ से ही यह शहरों में पहुंची. आज देश भर में लोक अदालत के आयोजन हो रहे हैं. गुजरात की महिला सामाख्या ने जो सफ़ल प्रयोग किये तो अन्य प्रदेशों की महिला सामाख्या ने इसे अपनाया गाँवों की स्त्रियों के लिए न्याय पाने का ये एक चमत्कार बनी.
मज़े की बात ये है शहरों में लोक अदालत का सञ्चालन करने वाले बहुत से लोग जिस तरह जानते नहीं हैं कि इसके जन्म दाता गुजरात के आनंद निकेतन आश्रम के श्री हरि वल्लभ पारिख हैं वैसे ही महिला सामाख्या कि बहुत सी कार्यकर्त्ता इस बात से अनजान हैं. दस वर्ष पहले की डभोई तालुका की लोक अदालत मेरी आँखों में झलक उठती है -------
मैं वड़ोदरा के डभोई की तालुका पंचायत के कार्यालय के परिसर में एक नीम के पेड़ के नीचे कुछ स्त्रियों के साथ एक बेंच पर बैठीं हूँ. नीचे बिछे फर्श पर चटक रंग की साड़ियाँ पहने कुछ स्त्रियाँ बैठीं हैं, इनमें कुछ दसवीं भी पास हैं. चार सहयोगिनी अदालत की कार्यवाही कर रहीं हैं. मुकदमें के बीच के संवाद सुनने लायक हैं ;
. एक स्त्री आक्रोश से कहती है, "विवाह के बाद स्त्री को गृहलक्ष्मी कहते हो. क्या उसे घर में मान मिलता है या पति खाली सबके सामने ढिंढोरा पीटता है कि ये गृहलक्ष्मी है. "
. एक वर्धा ठेठ गुजराती में कहती है, "यदि पति डंडा मारता है तो क्या फिर भी वह पति परमेश्वेर है?".
एक तथाकथित गृह लक्ष्मी छब्बीस वर्षीय भावना बेन मुडा हुआ हाथ लिए बैठी है. उस नवविवाहिता ने गलती से सब्जी में अजवायन अधिक डाल दी थी, सास ने सिर्फ एक रूपये कि अजवायन के लिए इतना शोर मचाया कि पति ने उसे मार मार कर हाथ में फ़्रैक्चर कर दिया. वह घबरा कर मायके चली गयी. पति न उसे लेने आया, न इलाज के रूपये भेजे. भावना की माँ महिला सामाख्या के संघ की सदस्य है, उसने नारी अदालत में मुक़दमा कर दिया. सास व पति दोनों हाज़िर हैं. इस आरोप पर सास अकड़ती है, "जब उसे घर बसाना है तो कष्ट तो सहना ही होगा. "
भावना बेन के साथ आई महिलायों के साथ श्रोता महिलाये भी चीखने लगतीं है, "क्या इस लड़के को घर नहीं बसाना है?घर क्या स्त्री का ही होता है. "
एक औरत चिल्लाई, "यह कहता है गलती से हाथ टूट गया, कल इसे जलाकर मार डालेगा और कहेगा -गलती से जला दिया. "
ज़ाहिर है उनकी सुलह होनी ही है. सविता बेन का पति सिर्फ मामूली पान की दुकान चलाता है, ससुराल वाले खाते पीते लोग हैं. वह उनकी प्रताड़ना से अलग होकर मुआवजा मांगती है. ससुराल वाले उसके पति की आय के हिसाब से कम रकम देना चाहते हैं.
श्रोता स्त्रियाँ चिल्लातीं हैं, "सारा घर सविता से सेवा लेता था. जब भरण पोषण की बात आई तो पति की आय देखी जा रही है, "ज़ाहिर है सुलह अच्छी खासी रकम लेकर ही होती है.
. एक सयोगिनी श्रीमती सरोज कुवानी बताती है कि, "पहले में गाँव की एक भजन मंडली में जाती थी. जब मै महिला सामाख्या की सदस्य बनी तब समझ में आया कि दुखी स्त्री जीवन भजन करने से नहीं बदल सकता. मैंने रचनात्मक कम करना सीखा. स्त्री को अपनी तक़दीर खुद बदलनी होगी. "
ये सन१९९९ की बदली हुयी तस्वीर है कि गाँव की इन स्त्रियों ने बताया था कि मासिक धर्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है. हम ऐसे में पूजा भी करते हैं मंदिर भी जाते हैं., मूर्ति भी छू लेते हैं
आप या कोई नारी अदालत में आई स्त्री से प्रश्न करे कि आपके गाँव में ग्राम पंचायत है फिर क्यों आप यहाँ आयीं हैं तो वह तपाक से उत्तर देगी, "पंचायत तो पुरुष चलाते हैं. हमारी समस्या समझ नहीं पाते तो सही निर्णय क्या देंगे ?वैसे भी वे ज़ल्दबाज़ी में निर्णय देतें हैं. "
महिला सामाख्या के स्त्री चेतना के प्रयासों से सन १९९९ में कहाँ फ़र्क रह गया था इन लगभग अनपढ़ ग्रामीण महिलायों की सोच व देश की प्रखर स्त्री विमर्शकारों में।
इन अदालतों की एक अनूठी सफ़लता है कि अब इनमें गाँव के लोग गाँवों की सामूहिक समस्या को लेकर आते हैं. ये अदालतें गाँव के पानी व सहकारी दुग्ध मंडल की समस्याएं भी हल करने लगीं हैं. सभी प्रदेशों में महिलायों ने यहीं से प्रेरणा लेकर दारू विरोधी अभियान शुरू कर दिया है. वे विधवा पेंशन व राशन कार्ड के मामले हल करतीं हैं. प्रत्येक गाँव के संघ की सदस्यों में से कुछ स्त्रियों को चुनकर लीगल कमेटी बनाते हैं. इनमें से कुछ होशियार महिलायों को चुनकर सहयोगिनी बनाया जाता है. ये संघ व लीगल कमेटी महीने में एक या दो बार अपनी मीटिंग रखकर गाँव की महिलायों की समस्यायों के बारे में जानकर उन्हें हल करने की कोशिश करतीं हैं. यदि निदान नहीं होता तो उसे तालुका की नारी अदालत में भेजतीं हैं. गाँव की कुछ महिलाये `प्रेशर ग्रुप` बना लेतीं है. ये ग्रुप दवाब डालकर ही बिना नारी अदालत के किसी सदस्य की समस्या हल कर लेता है. एक दस वर्ष पूर्व का ही उदाहरण दे रहीं हूँ जिससे वर्तमान की महिला सामाख्या की प्रगति को समझा जा सके. तब पावी जेतपुर की दसवीं पास लीला राठवा नाम कि सहयोगिनी ने बताया था, "हम लोगों ने दो सौ केस हल किये हैं. जिनमें से एक केस ही कोर्ट भेजना पड़ा है. जब कोई विधवा या परित्यक्ता को स्त्री धन वापिस नहीं देता तो पुलिस की सहायता से उसका घिराव कर स्त्री को उसका धन दिलवातें हैं. इस दवाब से लोग सोचतें हैं यदि मुक़दमा लड़ा तो चार गुना धन खर्च होगा "
एक लड़की व लड़के में प्रेम था. उस लड़की की शादी कहीं और हो गयी. वह लड़का उसकी शादी तुड़वा कर वापिस ले आया. कुछ समय बाद उसने दूसरी लड़की से शादी कर ली. लीला बेन बतातीं हैं, "तब उस लड़की को हमने बारह हज़ार रुपया बतौर हर्जाने के दिलवाया जबकि कहीं कोई एसा कानून नहीं है कि लड़का लड़की का शोषण करके छोड़ दे. तो उसे हर्जाना देना पड़े. "
"वह लड़का बिना कानून के दवाब में कैसे आ गया ?"
"सारा गाँव उनके प्रेम की बात जानता था. "
"इन गाँवों में महिला सरपंच की अलग भूमिका क्या रही है ?"
उत्तर दे रहीं हैं ममता बक्षी, "इनका ध्यान निश्चित रूप से स्त्री समस्यायों की तरफ है. पुरुष सरपंच बनते ही अपना नाम करने के लिए गाँव में चबूतरा बनवा देतें है या एस. टी. डी या पी. सी. ओ. बूथ खुलवा देतें हैं लेकिन स्त्री सरपंच तालाब खुदवा कर या हेंड पम्प लगवा कर पानी की समस्या सबसे पहले हल करतीं हैं क्योंकि गाँव की औरतों को मीलों दूर पानी लेने जाना पड़ता है. प्रसव पीड़ा होने पर स्त्रियों को बैलगाड़ी में शहर ले जाना होता है. सड़क न होने से इनमें से कुछ रास्ते में ही दम तोड़ जातीं हैं. अब सरपंच सड़क बनवाने में लगीं हैं जिससे इस स्थिति में इसी स्त्रियों को गाड़ी या बस से जल्दी अस्पताल पहुंचाया जा सके. "
"इनका पुरुषों की तरफ़ से विरोध हुआ होगा ?"
----------------------------------------------
नीलम कुलश्रेष्ठ
e-mail. ---rediffmail. com